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नया भारत गढ़ो

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :52
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5954
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक आत्मतत्त्व......

Naya Bharat Garho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

(प्रथम संस्करण)

‘नया भारत गढ़ो’ नामक हमारा यह नया प्रकाशन पाठकों के सम्मुख रखते हमें आनंद हो रहा है।
1980 ई. में बेलुड़ मठ में रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन का द्वितीय विश्वसम्मेलन आयोजित हुआ था। इस सम्मेलन समिति की ओर से स्वामी विवेकानन्द के साहित्य से संकलित कर ‘Rebuild India’ नामक एक अँगरेजी पुस्तक प्रकाशित की गयी एवं उक्त पुस्तक का भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद करने की योजना बनायी गयी। प्रस्तुत पुस्तक-‘नया भारत गढ़ो’- उपरोक्त अँगरेजी पुस्तक का हिन्दी संस्करण है। स्वामी विवेकानन्द के मानस नेत्रों के सम्मुख भारत वर्ष के भविष्य का जो आदर्श चित्र था उसे यह पुस्तक हमारे सामने अत्युज्ज्वल रूप से प्रकट करती है। हमारा विश्वास है, प्रस्तुत पुस्तक हमें स्वयं उन्नत हो अपने राष्ट्र को उन्नत बनाने की प्रेरणा देने में सफल सिद्ध होगी।

प्रकाशक

भूमिका


स्वाधीनताप्राप्ति के बाद से भारत की जनता में, विशेषकर नवयुवकों में, राष्ट्र को नये ढंग से गढ़ने की दिशा में सर्वत्र प्रबल उत्साह दिखाई दे रहा है। यह बात अत्यन्त सराहनीय है। तथापि, यह कार्य हाथ में लेने के पहले हमें इस बात की स्पष्ट धारणा होनी चाहिए कि भावी भारत किस प्रकार गढ़ा जाय। जो चित्र अंकित करना हो उसका स्पष्ट स्वरूप मानसनेत्रों के सम्मुख लाने के पश्चात् ही चित्रकार उसे पट पर उतारता है। इसी प्रकार किसी इमारत का निर्माण कार्य आरम्भ करते समय इंजीनिअर पहले इस विषय की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेता है कि वह ईमारत किस उद्देश्य से बनाई जा रही है-वह पाठशाला है या अस्पताल, कचहरी है या रहने का मकान। फिर वह नक्शा खींचता है और उसके अनुसार प्रत्यक्ष निर्माण कार्य आरंभ करता है। हमें भी राष्ट्र का गठन कार्य आरम्भ करने से पहले, सर्वप्रथम भावी भारत के स्वरूप के संबंध में स्पष्ट धारणा कर लेनी चाहिए। क्या हमें भारत को एक महान् फौजी राष्ट्र बनाना है ? कदापि नहीं, क्योंकि आज तक कोई भी फौजी शासन अधिक काल नहीं टिक पाया। हिटलर और मुसोलिनी का ही परिणाम देखो।

हमारा राष्ट्र गरीब है। अपने बांधवों की भूख मिटाने के लिए हमें धन चाहिए किन्तु क्या केवल रोटी के टुकड़े से हमारी समस्या हल हो सकेगी ? इतनी वैभवसंपन्नता के बावजूद क्या अमेरिका और उस तरह के अन्य उन्नत राष्ट्रों के लोगों को मन की शांति और सुख मिला है ? ऐसा तो नहीं दिखाई पड़ता। इनमें से कुछ देशों के नवयुवकों की ओर देखो-सम्पन्न परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन देशों में कितने ही युवक और युवतियाँ आज घोर निराशा के शिकार बने हुए हैं। जीवन में अर्जन करने योग्य कुछ भी दिखाई न देने के कारण वे कैसे उद्देश्यहीन बने भटक रहे हैं। उनमें से कुछ तो बड़े रईस हैं। पर जीवन का कोई उद्देश्य न रहने के कारण वे सदा एक प्रकार की भयानक उद्देश्यहीनता महसूस कर रहे हैं। हमें फौजी सामर्थ्य चाहिए परन्तु, वह अपनी स्वाधीनता की सुरक्षा के लिए-न कि फौजी अपने पड़ोसियों को लूटने के लिए। उसी प्रकार हमें धन चाहिए अपने गरीब बांधवों का पेट भरने के लिए-किन्तु धनोपार्जन हमारे राष्ट्र का आदर्श कभी नहीं बन सकता। इन दोनों बातों के अतिरिक्त हमें और एक विशेष बात की आवश्यकता है-वह है शांति। भला वह कौन सी वस्तु है जो हमें शक्ति और समृद्धि के साथ ही शांति भी दे सकेगी ?

अपने प्राचीन इतिहास का अध्ययन कर हमें देखना चाहिए कि अशोक, चन्द्रगुप्त, कनिष्क आदि राजाओं के शासनकाल में शक्ति-सामर्थ्य, समृद्धि तथा सुख, सभी बातों में भारत कितना उन्नत था। यह स्पष्ट ही है कि वैदिक तथा बौद्ध युग हमारे सम्मुख जो महान् आदर्श थे वही हमारे अतीत के गौरव के लिए कारणीभूत हैं। आज हमारी अवनति कैसे हुई, हमारा पतन क्यों हुआ, इसका कारण हमें ढूँढ़ निकालना चाहिए। अतएव भावी भारत का गठन करते समय हमें, जिन आदर्शों ने हमें उन्नत एवं महान् बनाया उनका स्वीकार करना चाहिए तथा जिन बातों के कारण हमारी अवनति हुई उनका त्याग करना चाहिए। साथ ही, हमें कुछ ऐसे नये विषयों का भी ग्रहण करना चाहिए, जो उस युग में उपलब्ध नहीं थे। उदाहरणार्थ-साइन्स और टेकनॉलॉजी।

आज कल हम विज्ञान की खूब दुहाई देते हैं। हम कहा करते हैं-यह बात विज्ञानसंगत नहीं है, यह गलतफहमी है, आदि। किन्तु अपने अतीत काल की ओर बिलकुल ध्यान न दे, उसमें क्या अच्छा था या उसमें कौन सी विशेषता थी जिसके कारण हमारा राष्ट्र गत तीन हजार वर्ष तक गौरवपूर्वक टिका रहा यह समझने का बिलकुल प्रयत्न न करते हुए हम उन पाश्चात्य आदर्शों के पीछे दौड़ते हैं जो ज्यादा से ज्यादा दो सौ वर्ष पहले अस्तित्व में आये और जो आज तक युग की कसौटी में खरे नहीं उतरे। क्या इस प्रवृत्ति को वैज्ञानिक कहा जा सकता है ? क्या पाश्चात्य राष्ट्रों की समस्याओं को सुलझाने में वे आदर्श कभी समर्थ हुए हैं ? क्या उन आदर्शों के कारण उन राष्ट्रों को कभी सुख-शांति मिली है ? ऐसा तो नहीं दिखाई देता। फिर हम इन आदर्शों के पीछे क्यों दौड़ें ?

हम मनुष्य हैं। भगवान ने हमें विचारशक्ति इसलिए दी है कि हम उसका यथायोग्य उपयोग करें, इसलिए नहीं कि जिस प्रकार पशुओं को चाहे जो कोई हाँक ले जाता है, उसी प्रकार कोई भी आकर जोरशोर के साथ कुछ कहने लगे और हम चुपचाप उसके पीछे हो लें। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि हमें अपने अतीव एवं वर्तमान काल के सभी तथ्यों और जानकारियों का संग्रह करना चाहिए, उन पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए और उन्हीं के आधार पर भविष्य की योजना बनानी चाहिए। हमें केवल भावनाओं के द्वारा परिचालित नहीं होना चाहिए।

सर्वप्रथम सब से आवश्यक बात है चरित्र। चरित्र के सिवा कोई भी महान् कार्य साध्य नहीं होगा। महात्मा जी की ओर देखो। अपने चरित्र के बल पर उन्होंने सारे राष्ट्रों को किस प्रकार अपने हाथ में ले लिया और अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया। इसके लिए उन्होंने तोपें, ऑटम बाँब आदि का उपयोग नहीं किया। अतएव यदि हममें भारत को महान् बनाने की इच्छा हो तो हमें सर्वप्रथम अपना चरित्र निर्माण करना होगा। फिर अपनी विचारशक्ति का उपयोग कर हमें भारत को किस प्रकार गढ़ना है इसका योग्य अध्ययन करने के बाद ही कार्य आरम्भ करना चाहिए-फिर यदि उस प्रयत्न में हमें प्राणों का भी बलिदान करना पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए। इस प्रकार के अध्ययन के लिए स्वामी विवेकानन्द का साहित्य हमारे लिए अत्यन्त मार्गदर्शक सिद्ध होगा। वह हमें भारतीय संस्कृति एवं भारतीय आदर्शों की महानता का परिचय करा देगा।

स्वामी विवेकानन्द के साहित्य से संकलित यह पुस्तक, भारत की वर्तमान अवनति के कारण, उसकी वर्तमान परिस्थिति एवं उसके पुनरुज्जीवन के उपाय के संबंध में स्वामीजी के विचारों का दिग्दर्शन करा देगी। आशा है, महत्तर भारत गढ़ने की महत्त्वाकांक्षा रखनेवाले हमारे नवयुवकों के लिए यह पुस्तक सहायक सिद्ध होगी।

बेलुड़ मठ
23 दिसम्बर, 1980

स्वामी वीरेश्वरानन्द
अध्यक्ष

रामकृष्ण मठ तथा रामकृष्ण मिशन

नया भारत गढ़ो


प्रथम अध्याय
हमारा राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है


हमारा पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्य-भूमि है। यहीं बड़े बड़े महात्माओं तथा ऋषियों का जन्म हुआ है, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदि काल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है।1

प्रत्येक राष्ट्र की एक विशिष्टता होती है, अन्य सब बातें उसके बाद आती हैं। भारत की विशिष्टता धर्म है। समाज-सुधार और अन्य सब बातें गौण हैं।2

(हमारी) जाति अभी भी जीवित है, धुकधुकी चल रही है, केवल बेहोश हो गयी है।......देश का प्राण धर्म है, भाषा धर्म है तथा भाव धर्म है। तुम्हारी राजनीति, समाजनीति, रास्ते की सफाई, प्लेग निवारण, दुर्भिक्ष पीड़ितों को अन्नदान आदि आदि चिरकाल से इस देश में जैसा हुआ है, वैसे ही होंगे अर्थात् धर्म के द्वारा यदि होगा तो होगा अन्यथा नहीं। तुम्हारे रोने-चिल्लाने का कुछ भी असर न होगा।3 अत: यदि तुम धर्म का परित्याग करने की अपनी चेष्टा में सफल हो जाओ और राजनीति, समाजनीति या किसी दूसरी चीज को अपनी जीवन-शक्ति का केन्द्र बनाओ, तो उसका फल यह होगा कि तुम एकबारगी नष्ट हो जाओगे।4

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